बुधवार, फ़रवरी 20, 2013

धुंधली सी धुंध (कहानी)

                                                              (चित्र गूगल से साभार)
                                                                    
दरवाजा पीटे जाने की आवाज से आँख खुली।  देखा तो रोशनदान से छनकर आती धूप के चलते बंद कमरे में भी भरपूर उजाला हो रहा था। कुछ देर तो आँखें खोलकर वैसा ही निष्चेष्ट लेटा रहा,  लेकिन बाहर खड़े बग्गे ने फ़िर से दरवाजा पीटा और हाँक लगाने लगा, ’साब, ओ साब’..     लड़खड़ाते कदमों से उठकर मैं दरवाजे की तरफ़ बढ़ा। दरवाजा खोला तो खोलते ही आँखें तेज धूप के कारण मिचमिचाने लगीं। चक्कर खाकर गिर न जाऊँ, मैंने दरवाजा पकड़ लिया। बग्गे के चेहरे पर पसीना उतरा हुआ था, उसने मुझे सहारा दिया और फ़िर से फ़ोल्डिंग बेड पर लाकर बिठा दिया। मेरे माथे पर हाथ लगाकर कहने लगा, "तबीयत ठीक नहीं लगदी है। आधे घंटे से आवाज लगा रहा हूँ और आपने कोई जवाब ही नहीं दिया। मुझे यही डर था कि रात को बारिश में आये होगे और तबियत खराब होगी, अकेले रहना बड़ी मुसीबत है साबजी। पानी पियोगे?" जवाब सुने बिना ही गिलास में पानी भर लाया।

मैंने घड़ी देखी तो ग्यारह बजने वाले थे।  ग्यारह? हे भगवान, ये तो अच्छा है कि गाँव की पोस्टिंग है वरना शहर होता तो पता नहीं कहाँ-कहाँ तक शिकायती टेलीफ़ोन, ईमेल हो चुके होते। मैंने उठने की कोशिश की लेकिन ऐसा लगा जैसे पैर जाम हो चुके थे। बग्गे ने फ़िर से मुझे गिरने से बचाया और कहने लगा, आप लेटे रहो, आराम करो।  चाय बनाता हूँ,  थोड़ा आराम मिलेगा।" मैं फ़िर से लेट गया।

कमरे के एक कोने में ही गैस स्टोव रखा था  और वहीं  अपनी रसोई का आडंबर किया हुआ था। अकेला आदमी, सामान जितना कम हो उतना ही अच्छा। दूध पाऊडर की चाय टेस्ट में बेशक कुछ अलग हो लेकिन थकान दूर करने के काम तो आ ही जाती है। मेरी आँखें फ़िर मुँद गईं, बग्गे की बातें चल रही थीं। "सवेरे यहाँ से निकला था तो देखा था कि ताला नहीं लगा हुआ तो समझ गया कि आप आ गये होंगे। फ़िर जब साढ़े दस बजे तक आप नहीं आये तो वड्डे साब ने कहा कि जा देखकर तो आ, सब ठीक तो है। तब से लगा होया हूँ दरवाजा पीटने में। कितने बजे आये थे कल रात को?"

"रात को? टाईम तो नहीं देखा लेकिन तड़का होने ही वाला था।" सच तो ये है कि मैं सोचने की हालत में ही नहीं था। पता नहीं क्या हुआ था लेकिन दिमाग एकदम जाम हुआ पड़ा था, बीच बीच में कुछ याद आ रहा था लेकिन सिलसिलेवार नहीं। जैसे पहाड़ों में कभी कभी एकदम से बादल या कोहरे की चादर सी आ जाती है और सब दिखना बंद, और थोड़ी देर में सब साफ़, लेकिन जो नजारा कोहरे के पीछे रह गया वो नहीं दिखता। चुप रहने पर बोझिलता और बढ़ रही थी तो मैं बग्गे को बताने लगा कि कैसे पहले तो ट्रेन लेट हो गई। फ़िर लुधियाना में एक घंटे तक बस का इंतजार करता रहा और बस नहीं आई। हारकर नजदीक के स्टेशन पर जाना पड़ा ताकि आखिरी पैसेंजर ट्रेन ही मिल जाये। अचानक ही रिश्तेदारी में जाना पड़ा था और अंदाजा था कि लौटने में सात आठ बज जायेंगे  तो मोटर साईकिल शहर के बस स्टैंड पर रख गया था। अब ट्रेन से आया तो वहाँ से फ़िर बस स्टैंड तक पैदल आना पड़ा और पहुँचते-पहुँचते बारह बज चुके थे। हालाँकि सहकर्मियों ने अच्छी तरह से मना किया था कि आठ-नौ बजे के बाद गाँव तक अकेला न आऊँ लेकिन अकेला होने पर मुझे कोई डर वाली बात लगती नहीं।

जैसे जैसे कल रात की बातें याद आ रही थीं, मैं टुकड़ों-टुकड़ों में बोल रहा था। बस स्टैंड से मोटर साईकिल उठाई और हल्की-हल्की  बारिश शुरू हो गई। पता था मुझे, भीगे बिना तो सफ़र पूरा होता ही नहीं है मेरा।  जी.टी.रोड तक तो फ़िर भी ट्रक और कारें दिख रही थीं, गाँव के लिये जहाँ जी.टी.रोड छोड़ी थी तो फ़िर दूर दूर तक कोई नहीं था। न कोई गाड़ी, न लाईट। सिर्फ़ अपनी मोटर साईकिल की लाईट सड़क पर भागती दिख रही थी। बारिश अब भी रुक रुककर चल  ही रही थी। बीच बीच में कभी चाँद चमकता भी दिख जाता था और उस समय सड़के के गड्ढों में रुका बारिश का पानी चाँदी जैसे रंग का दिखता था। यही फ़र्क है असली और कृत्रिम में, बाईक की  पीली रोशनी में तो ये पानी सुनहरा नहीं दिखता? यैस्स, ध्यान आ गया। बिल्कुल यही सोच रहा था मैं जब  सड़क के एक किनारे के खेतों से कुछ निकलकर एकदम से बाईक के सामने से सरसराता हुआ सा दूसरे किनारे जाकर खेतों में उतर गया था। खरगोश था, नेवला था या कुछ और, आकार से कुछ अंदाजा ही नहीं लगा पाया था मैं। 

एकदम से ब्रेक जरूर लगाये थे, नतीजतन घिसटते हुये बाईक रुकी लेकिन फ़िसलने के बाद।

फ़िर से आंखों के आगे वही धुंध सी छा गई थी, महसूस हो रहा था लेकिन कुछ कर नहीं पा रहा न ही कुछ हरकत करने की इच्छा।   आँखों के आगे से कोहरा हटा, जब एक उम्रदराज सरदारजी मेरी नब्ज़ और धड़कनें चैक कर रहे थे। मुँह से ’वाहेगुरू, वाहेगुरू’ बुदबुदाते हुये मुझे सहारा देकर बैठाया।  हाथ पर और घुटने पर लगी खरोंचों को देखकर कहने लगे, "पुत्तर, बचाव हो गया। केहड़े पिंड जाना है?"

जारी ...




39 टिप्‍पणियां:

  1. प्रतीक्षा करते हैं, अगली कड़ी की..

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  2. मुझे पता है कि आप कहानी भी लिखते हो पर क्या ये आपकी घटना है नही मुझे लगता है कहानी है और दूसरे भाग की वजह से पेट में दर्द रहेगा जब तक पता नही लग जाता कि चोट लगने की वजह से ही तबियत खराब हुई थी क्या ? वैसे अभी तक कुछ भी अंदाजा नही लग पाया हैं

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  3. अमा यार पिंड दा ना ते दस के जान्दा... कि पता साडी वि कोई रिश्तेदारी उथे निकल जांदी.

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  4. ab tak ki sacchi baat ....intizaar...


    jai baba banaras...

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  6. जब कभी तनाव होता है हम पर ऐसा ही प्रभाव नज़र आता है।कहानी प्रभावी लगी अगला भाग इससे भी रुचिकर मिलेगा .

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    1. अपकी अपेक्षा पर पूरा उतर पाया कि नहीं, देखते हैं सिंह साहब..आज शाम सात बजे :)

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  7. हम चेन्नई पहुँच गए हैं और हमारी भी यही हालत है. मॉनीटर के आगे धुंद. अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा.

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    1. चेन्नई प्रवास के लिये मंगलकामनायें पी.एन.सर।

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  8. अरे, उत्सुकता बढ़ाकर ज़ारी...खैर अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा.

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    1. अगली कड़ी बस आई ही समझिये, चल दी है स्टेशन से :)

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    1. धुंध बहुत थी न जी, कहानी दिखती कैसे?
      चैक कर लिये हैं फ़िर से, एक्सीडेंट-उक्सीडेंट कुच्छो न लिखें हैं हम। धचका को धचका दीजिये, हम तो इसे कहानी ही कहते हैं :)

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  10. मेरा तादात्म्य सा हो रहा है इस कहानी के साथ :-)
    अब भाई जी धुंध तो धुंधली सी होगी न? कहीं आप किसी कौंधती सी धुंध या आतिशी धुंध की संकल्पना तो नहीं पाले हुए हैं ?
    या फिर धुंध के आर पार या धुंध के इस पार या उस पार या किसी धुंध के उजियारे की तो सोच नहीं बैठे हैं -ये स्साला कहानी का शीर्षक भी काफी मगजमारी करा देता है! जबकि होता कहानी की जान है!

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    1. आपके खुलासा करने के डर से आज ही समापन कर दे रहा हूँ। लाईट अच्छी फ़ेंकी है आपने अरविन्द जी :)

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  11. अच्छा तो दी दिन की हड़ताल में कहानिया लिखी जा रही है बहुत अच्छे ! हमसे पूछिये स्कुल वाले अल्टीमेटम भेज दिए की की जून में नहीं कल ही फिस भरिये वो भी सब के सब कैस काहे की जब स्कुल छोड़ कर आप जाये तो उनका कोई नुकशान न हो और अब ए टी एम में पैसे नहीं और बैंक बंद है । हड़ताल का बदला हड़ताल , तो आज हमारी भी टिप्पणी की हड़ताल !

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    1. दो दिन की तन्ख्वाह हमें भी कम मिलेगी इस महीने, और ट्रैजेडी ये है कि हम जिनके लिये हड़ताल करते हैं वो भी अल्टीमेटम हमें ही देते हैं।
      टिप्पणी की हड़ताल तो हमारे जवाब की भी हड़ताल !

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  12. अब ऊपर ही टिप्पणी पर सफाई न देने लगियेगा :)

    हैंग राष्ट्रपति की तरह आप भी जारी की आरी चला कर सबको हैंग करने पर तुले है । पता नहीं दो दिन की हड़ताल में कहानी पूरी की की नहीं , नहीं कर पाए तो पता नहीं फिर कब छुट्टी मिले और कब कहानी पूरी हो तब तक सब के सब हैंग पड़े रहे, हम नहीं होने वाले जिस दिन दिखेगा समाप्त उसी दिन एक साथ पूरी पढ़ कर कुछ कहेंगे :)

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    2. कम से कम सफ़ाई संतरी तो बनने दीजिये :)
      हैंग करके नहीं रखना है इसलिये आज ही छाप देंगे समापन कड़ी, सात बजे तक।

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    3. हमने तो आप को हैंग राष्ट्रपति बना दिया और आप संतरी बनने की बात कर रहे है ।

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    4. अदा जी

      वो हड़ताल पर जायेंगे तो जो उनकी जगह जो काम करेंगे वो भी वैसे ही होंगे , दुसरे काम करते हुए इतने घोटाले करते है खाली दिमाग हुआ तो न जाने कितने घोटालो के प्लान बना ले :)

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  13. thik hai ........... fir milte hain ......... samapan sopan ke baad......filwaqt 'dhundh' badha ja raha hai.......

    bare mouj lete rahte hain aap......log-bag bhi aapka aanand le
    rahe hain..........


    pranam.

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