सोमवार, मार्च 01, 2010

नोस्ताल्ज़िया @ होली

आज से बीस साल पहले जब कॉलेज छोड़ा(छोड़ना पडा) तो हम दोस्तों ने यह फैसला किया कि संपर्क जरूर रखेंगे| ऐसे ख्वाम्ख्याली वाले बहुत से फैसले हम शुरू से ही लेते रहे हैं| वैसे भी ये थ्योरी हम उसी समय प्रतिपादित कर चुके थे कि हमारा(हमारे आयु वर्ग वालों का) जन्म *** समय में हुआ है और हमारे मित्र बन्धु भी इस सिद्धांत का अनुमोदन कर हमें टंकी पर चढ़ा चुके थे| हमारे दद्दू कहा करते थे कि उनके समय का आठवीं पढ़ा आज के बी. ए./बी.काम. के बराबर है(ये वचन हमें लक्ष्य बनाकर ही कहे जाते थे) और हम कहते थे कि जब हमारे बच्चे आठवीं में होंगे तो वो अक्ल में हम जैसे बी.ए./बी.काम. के बराबर या हमसे ऊपर ही होंगे| हम दद्दू की हाँ में हाँ मिलाना अपना कर्त्तव्य समझते थे| कसूर हमारा नहीं था, समय काल का था| जिन भुक्तभोगियों का जन्म वर्ष १९७०(+/- ५) है वो हमारी बात से पूर्णतया नहीं तो आंशिक रूप से सहमत जरूर होंगे| आदर्श, संस्कार, आगे निकलने की आपाधापी सभी इस काल में वर्चस्व की लड़ाई में व्यस्त थे|
अब कॉलेज छोड़कर वास्तविक दुनिया में घुसे तो आटे-दाल का भाव मालूम चलना शुरू हुआ| आज की तरह मोबाइल फोन तो थे नहीं कि जब मन किया झट से नंबर मिलाया और मन की बात कर ली| संपर्क बनाए रखने के लिए देह को थोड़ा सा नहीं बहुत सारे कष्ट देने पड़ते थे यथा स्कूटर या मोटरसाईकिल पर अकेले से सफ़र शुरू करके संख्या बढ़ाते हुए(वाहन के नहीं, सवारी करने वालों की) दुसरे बन्धु, तीसरे मित्र, चौथे यार को बैठा कर पांचवे फ्रेंड के घर पहुँच कर हमारा कोरम पूरा होता था| मंडली में सदस्यों की अधिकतम संख्या पांच थी जिसका असली कारण मंडली के पास उपलब्ध वाहन की सीमित संख्या होना और उस वाहन की वहन क्षमता चार सवारी से ज्यादा ना होना था| खैर, काफी दिनों तक यह कार्यक्रम जारी रहा| फिर जब नून,तेल और लकड़ी के फेर में फंसे तो इन मित्र-मिलन कार्यक्रमों में अंतराल धीरे-धीरे बढ़ने लगा| हमेशा की तरह इस बात का जिम्मेदार हमें ही ठहराया गया कि क्या पड़ी थी तुझे अच्छी भली तीस हजारी कोर्ट की नौकरी छोड़कर घर से बेघर होने की| घर छूटा, दिल्ली जैसा शहर छूटा, मलाई वाली नौकरी छूटी, यार दोस्त छूटे और हमने भी हमेशा की तरह उनकी हाँ में हाँ मिलाई और बताया कि घर, शहर, दोस्त छूटे नहीं बल्कि उनके लिए हमारा क्रेज़ बढ़ गया है और नए परिचय हुए, नए अनुभव हुए वो अलग|
अब हमारी अड्डेबाजी कम होते होते काफी अनियमित हो गयी थी| एक नया प्रस्ताव लाया गया कि साल भर चाहे न मिल पायें, होली से पहली रात को जरूर मिला करेंगे| पिछले दस बारह साल से ये हमारी दोस्ती का परमानेंट फीचर बन गया कि होली से पहले की रात पाँचों दोस्त रात नौ बजे बैठते, खाना-पीना चलता, बातचीत चलती, यादों की पिटारियाँ खुलतीं और कब सुबह के ३-४ बज जाते थे पता भी नहीं चलता था| कल भी मंडली जमी, खाना पीना भी हुआ, बातें भी खूब हुईं बस कोरम में शायद कुछ कमी थी| मैं यहाँ बैठा हुआ अपना खाने पीने का सामान लेकर कम्प्यूटर में स्पाइडर खेल रहा था, गाने सुन रहा था, बीच-बीच में फोन बज उठता था कि,"साले, तू ही प्रोग्राम बनाता है, जब हमें लत लग जाती है तब अलग हो जाता है|" मैं हमेशा की तरह उनकी हाँ में हाँ मिला रहा था और किसी बड़े से सुना डायलॉग सुना दिया कि "प्यारे, मेला तभी छोड़ देना चाहिए जब वो पूरे शबाब पर हो ताकि तुम्हारा जाना लोगों को महसूस तो हो|" सुबह २.३० बजे वहां की महफ़िल खत्म हुई तो इधर हमने भी अपनी वन-मैन महफ़िल(ये महफ़िल भी कोई महफ़िल है?) भी समेटी। जिन्दगी एक दरवाजा बंद करती है तो दुसरे दरवाजे खुल जाते हैं| आज फिर मैं अपने आप को नए दोस्तों, परिचितों के बीच पाता हूँ और उनका आभार महसूस करता हूँ कि होली पहली-सी नहीं है, लेकिन पहले से कम भी नहीं है|
हर तरफ होली की धूम मची हुई है, स्वाभाविक भी है| दूसरी तरफ समाचार आ रहे हैं कि सी.बी.आई. के किसी कदम से नाराज होकर एक पंथ के मानने वालों ने बस, गाडी, डाकघर आदि फूँक दिए, पंजाब में हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया है| एक छोटी सी खबर और भी आ रही है कि नानाजी देशमुख नहीं रहे।न रहें, किसे फर्क पड़ता है? लेकिन मुझे फर्क पड़ता है, जिस इंसान को मैंने कभी देखा भी नहीं, लेकिन जिस आदमी ने अपने दल के सत्ता में पहुँचने के फ़ौरन बाद सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और अपने जीवन को चित्रकूट जैसे पिछड़े क्षेत्र के निवासिओं का जीवन स्तर सुधारने के लिए खपा दिया, ऐसे आदर्श व्यक्तित्व के देहत्याग पर मैं दुखी तो महसूस कर ही सकता हूँ|
सुख-दुःख, राग-रंग साथ ही चलते रहते हैं, इसी का नाम दुनिया है| होली का पर्व सभी भारतवासियों के लिए शुभ हो|

6 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति, हमें भी यादों के गलियारे मैं एक चक्कर मार लेने पर मज़बूर किया रचना ने. होली की शुभ कामनाए!

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  2. पुराने दिन याद आ गये आप का लेख पढ कर !!! सुन्दर लिखा है आप ने ! शुभकामनाएँ

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. नानाजी देशमुख नहीं रहे।न रहें, किसे फर्क पड़ता है? लेकिन मुझे फर्क पड़ता है, जिस इंसान को मैंने कभी देखा भी नहीं, लेकिन जिस आदमी ने अपने दल के सत्ता में पहुँचने के फ़ौरन बाद सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और अपने जीवन को चित्रकूट जैसे पिछड़े क्षेत्र के निवासिओं का जीवन स्तर सुधारने के लिए खपा दिया, ऐसे आदर्श व्यक्तित्व के देहत्याग पर मैं दुखी तो महसूस कर ही सकता हूँ|
    Sahmat hun aapseaur dard me shamil..

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  5. बहुत गजब पोस्ट. महत्वपूर्ण बातों के महत्व को समझाती हुई पोस्ट. वाह!!

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